Monday, 17 November 2014

देश की आजादी में भारतीय पत्रकारिता



∙ अजीत कुमार
     भारत में पत्रकारिता प्रारम्भ विलियम बोल्ट्स ने किया, 1768 के सितम्बर महीने में बोल्ट्स ने प्रकाशन और मुद्रण के कार्य में रूचि रखने और जानकारी रखने वाले वालों को समाचार-पत्र प्रकाशित करने के लिए आमन्त्रित किया था| भारत में आधुनिक पत्रकारिता का प्रारम्भ अंगेजों के द्वारा शुरू हुई, सर्वप्रथम 29 जनवरी 1780 को जेम्स अगस्त हिकी ने “बंगाल गजेट एंड कलकत्ता गनरल एडवरटाईजर” नामक साप्ताहिक पत्र का संपादन किया, इस दिन से भारत में पत्रकारिता की विधिपूर्वक शुरुआत हुई इस पत्र को हिकीज गजेट भी कहते हैं इसके सम्बन्ध में हिकी ने कहा भी है- “यह राजनीतिक और व्यवसायिक पत्र खुला तो सबके लिए है परन्तु प्रभावित किसी से नहीं है| ब्रिटिश सरकार में इस पत्र की काफी आलोचना हुई जिसके उपरांत तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने मार्च 1782 में इस पत्र को बन्द करवा दिया| अपने अल्प जीवन काल में ही इस समाचार-पत्र ने सरकारी दमन के विरुद्ध जो साहस दिखलाया जिससे वर्तमान समय में भारतीय पत्रकारिता का आदर्श बन गया|
     भारत में पत्रकारिता का इतिहास, मुद्रण के इतिहास से कही ज्यादा पुराना है सर्वप्रथम कुछ समाचार-पत्र हस्तलिखित भी प्रकाशित किये गये| पत्रकारिता के विकास के लिए मुद्रण एक अनिवार्य तत्व है, वर्तमान मुद्रण का इतिहास लगभग 500 वर्ष से चला आ रहा है| देश और समाज की धड़कन समाचार-पत्र, बेजुबां को बोलने और बहरे को सुनने की क्षमता प्रदान करता है, पत्रकारिता ने इसे जनस्वर देकर सर्व-सुलभ बनाया जो जनमानस की अभिव्यक्ति है जिसमे समाज का हर व्यक्ति अपने आपको बराबर के स्थान पर पाता है भारतीय पत्रकारिता के तत्व वैदिक-काल तथा रामायण, महाभारत आदि में बीजरूप में निहित होते हैं| विभाजन से पूर्व बांग्लादेश, ढाका और पाकिस्तान में लाहौर हिंदी पत्रकारिता के गढ़ रहे, ढाका में हिंदी पत्रकारिता आज भी संतोषजनक है| कानपुर निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल आजीविका की तलाश में कलकत्ता गये जहाँ उनके मन में कलकत्ता प्रवास के दौरान यह विचार आया कि हिन्दुस्तानियों के हित एवं उनमे नवचेतना का संचार करने के लिए एक हिंदी भाषा का पत्र निकाला जाये, 30 मई 1826 को कलकत्ता से ‘उदन्तमार्तण्ड’ नामक हिंदी का साप्ताहिक-पत्र प्रारम्भ किया|
     हेराल्ड बेंजामिन के अनुसार, पत्रकारिता शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली माध्यम है, शिक्षा के विकास के बिना पत्रकारिता की प्रगति की कल्पना करना मुश्किल है| अंगेजी शासन काल में भारतीय समाज को सामाजिक तौर पर जागृत करने में इन समाचार-पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है| बाल-विवाह, विधवा-विवाह के साथ ही पर्दा प्रथा, स्त्री-शिक्षा आदि बिन्दुओं पर फोकस करना इन पत्र-पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य था|
     स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हिन्दी पत्रकारिता एक मिशन थी, इसका लक्ष्य राष्ट्रीय अस्मिता, एकता, अखंडता, स्वतंत्रता एवं देशभक्ति के प्रति भारतीय जनमानस को प्रेरित करना था, इस अवधि में अधिकांश पत्रकार, स्वतंत्रता-संग्राम से जुड़े हुए थे| जनमत संरचना, शिक्षा, जागरूकता की दिशा में पत्रकारों ने जिस निष्ठा से आजादी की लड़ाई के समय कार्य किया, उसे निष्ठा भाव कहे या स्वन्त्र भारत के प्रति समर्पण दोनों ही कम हैं| भारतीय पत्रकारिता सत्ता और जनता के मध्य एक सशक्त कड़ी के रूप में कार्य करते हुए नित नये आयाम स्थापित किये अगर कहा जाये कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का बहुआयामी विकास हुआ ततो कतई गलत नहीं है| स्वाधीनता के बाद भारत में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रिमासिक, छमाही एवं वार्षिक आवृत्ति वाले पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बहुत बड़ी संख्या में हुआ है, सामान्यतः समाचार-पत्रों का स्वरुप दैनिक या साप्ताहिक था|
     भारतवर्ष में हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता- आन्दोलन की ध्वजवाहिका रही है, जिस तरह आँखों के लिए प्रकाश महत्वपूर्ण है उसी प्रकार स्वतंत्रता के लिए पत्रकारिता में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की| एक अच्छे मार्गदर्शक के रूप में स्वतंत्रता का मार्ग दिखलाकर पत्रों ने पाठकों को स्फूर्ति दी| स्वतंत्रता के महायज्ञ में हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से डाली गयी आहुति सतत स्मरणीय रहेगी| पत्रकारिता जन भावना की अभिव्यक्ति है, सदभावों की अभिव्यक्ति का यही साधन है| अकबर इलाहाबादी के शब्दों में पत्र- ‘खींचों न कमानों न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो|’
     देश की आजादी में महिला पत्रकारों एवं सहयोगियों की भूमिका सराहनीय है| इन्होंने सक्रिय योगदान देकर पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया| पर्दे और चहरदीवारी के अंदर रहने वाली स्त्रियों ने बाहर आकर अंग्रेजों से लोहा लिया, चांहे वह 1857 के विद्रोह में झाँसी की रानी हो या रानी चेनम्मा आदि स्त्रियों ने मैदान में फिरंगियों का सामना किया लेकिन इसके 90 वर्ष बाद तो हर स्त्री, युवती और बच्ची इस महासंग्राम में आगे आयी| चांहे वह सरोजिनी नायडू हो, कमला नेहरु, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि बहुत सी  स्त्रियों ने अपनी समाचार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जुड़ी और आन्दोलन में आगे आकर मोर्चा संभाला| सरोजनी नायडू जो भारत की प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, कवयित्री, लेखिका एवं गायिका थीं जिन्होंने देश की आजादी में सक्रिय रूप से भाग लिया, इन्होंने देश के क्रान्तिकारी वीरों को प्रभावशाली भाषणों एवं पत्रों के माध्यम से प्रभावित किया जिससे लोग आजादी की जंग में कूद पड़े|
       पत्रकारिता वास्तव में रोचक एवं चुनौतीपूर्ण मिशन है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भारतीय जनसंचार की क्रान्ति की सूचनाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील बना दिया है| वास्तव में समाचार और विचार को समीक्षात्मक टिप्पणियों के साथ शब्द, ध्वनि तथा चित्रों के माध्यम से जन जन तक पहुँचाने की कला ही पत्रकारिता है| यह वह विद्या है जिसमे पत्रकारों के सभी प्रकार के कर्तव्यों और लक्ष्यों का विवेचन होता है| परतंत्रता के दिनों में पत्रकारों ने अंग्रेजी सत्ता के फौलादी पंजों से मुकाबला किया, आर्थिक संकट से जूझकर पत्रकार बंधुओं ने कंटकाकीर्ण मार्ग को अपनाया| और अपने देश की स्वतंत्रता के लिए जान पर खेलकर आजादी के जोशपूर्ण लेख और कविताओं को पत्र के माध्यम से पहुँचाया|  
     गांधीजी एक सिद्ध हस्त पत्रकार थे, उन्होंने पत्रकारिता की वैचारिक क्रांति का एक सशक्त माध्यम स्वीकार किया| गांधीजी अनेक पत्र नवजीवन, हरिसेवक, हरिजन एवं यंग इंडिया आदि के संवाहक थे| गांधीजी के साथ प्यारेलाल, डा० जे०सी० कुमारप्पा, स्व० महादेव देसाई जैसे तत्वदर्शी पत्रकार उनके सहायक थे, जो हिंदी पत्रकारिता एवं देश के लिए प्राण उड़ेलते थे| गाँधी जी ने रौलेट एक्ट के विरोध में बिना रजिस्ट्रेशन के ही 7 अप्रैल 1919 को बम्बई से सत्याग्रह साप्ताहिक का प्रकाशन किया|
     स्वतन्त्रता आन्दोलन को तीव्र करने में कानपुर के प्रताप कार्यालय का योगदान अतुलनीय है, गणेश शंकर विद्यार्थी मात्र स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी ही नहीं अपितु एक महान पत्रकार भी थे| वह नवयुवकों को आश्रय देकर, प्रशिक्षण देकर उन्हें राष्ट्रहित में सर्वस्व गवां देने के निमित्त जोश भरते थे भारत का कोई ऐसा आन्दोलन नहीं था जो विद्यार्थी जी से प्रेरणा न पाता हो शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह भी इनके कार्यालय में शरण पा चुके थे, पंडित माखन लाल चतुर्वेदी, कृष्णदत्त पालीवाल, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, दशरथ प्रसाद की भांति भगत सिंह ने भी विद्यार्थी जी द्वारा प्रेरित होकर पत्रकारिता को अपनाया|
कर्मवीर, स्वदेश, प्रताप एवं सैनिक जैसी पत्रिकाओं ने मिलकर अंग्रेजो को नचाया जिसके सूत्रधार विद्यार्थी जी ही थे| इसमें सुभाष चन्द्र बोस, शहीद भगत सिंह, राजेंद्र सिंह लाहिड़ी, चंद्रशेखर  आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, आदि प्रमुख क्रान्तिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी, अम्बिका प्रसाद बाजपेई, लक्ष्मी नारायण और बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे जुझारू पत्रकारों के प्रमुख लक्ष्य थे इसी समय मदन मोहन मालवीय ने 1907 में ‘अभ्युदय’ का प्रकाशन कर उत्तर प्रदेश में जन जाग्रति का बिगुल बजा दिया| कर्मवीर पत्र ने स्वतंत्रता के समय ओज एवं जोशपूर्ण शीर्षक ‘राष्ट्रीय ज्वाला जगाइये’ के साथ देश के युवाओं के ह्रदय में देश भक्ति का भाव भर दिया स्वतंत्रता संग्राम में 12 बार जेल की यात्रा करने वाले और 63 बार तलाशियाँ देने वाले माखन लाल चतुर्वेदी जी ने हिंदी पत्रकारिता को जुझारू व्यक्तित्व प्रदान किया | मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक, मात्रभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जायें वीर अनेक, स्वाधीनता हेतु प्राणदान की इस प्रबल पुकार को गुंजित करने वाले इस मनीषी से सम्बद्ध कर्मवीर का प्रकाशन कई बार स्थगित हुआ इसके उपरांत इस पत्र को बन्द होना पड़ा |
पराधीन भारत के नवयुवक स्वतंत्रता आन्दोलन में किसी भी तरह पीछे नहीं हटे, अहिंसक नेताओं की निति की असफलता से क्षुब्ध होकर हिंसात्मक निति का सहारा लिया| युवा वर्ग सशस्त्र क्रांति की तैयारी करने लगा| पत्रकार पुंगव पराड़कर जी महान क्रन्तिकारी थे, वे क्रन्तिकारियों के दल में शामिल होने के लिए कलकत्ता गए, 25 अगस्त 1930 को पराड़कर जी ने ‘रणभेरी’ में लिखा- “ऐसा कोई बड़ा शहर नहीं रह गया है, जहाँ से एक भी रणभेरी जैसा पर्चा न निकलता हो, अकेले बम्बई में इस समय ऐसे कई दर्जन पर्चे निकल रहे हैं, शुरू में वहां सिर्फ कांग्रेस बुलेटिन निकलती थी नये पर्चों के नाम जो समयानुकूल हैं जैसे- रिवोल्ट, रिवोल्यूशन, विप्लव, बाल्वो, फितूर, ग़दर, बग़ावत, बदमाश अंग्रेज सरकार आदि.... दमन से द्रोह बढ़ता है इसका यह अच्छा सबूत है, पर नौकरशाही के गोबर भरे गंदे दिमाग में इतनी समझ कहाँ, वह तो शासन का एक शस्त्र जानती है- बन्दूक |  
समाचार-पत्र का कर्तव्य है कि वह सत्य की खोज करे और निश्चित सिद्धांतों के आधार पर संसार के मामलों में उसका प्रयोग करें| उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचंद्र ने 1930 में हंस पत्रिका को प्रकाशित किया जिसमे सत्य और सच्चाई की छाप साफ चमकती थी जो कि उस समय देशभक्ति एवं क्रांतिकारियों के विचारों से सम्पन्न थी|
हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी हिंदी पत्रकारिता ने अपना वर्चस्व कायम कर रखा है, ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ को सार्थकता प्रदान करने के लिए हिंदी के साधनों ने अविस्मरणीय कार्य किया, प्रवासी भारतीयों की साधना सतत स्मरणीय है| राजर्षि टंडन कहा करते थे कि हिंदी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है, हिन्दी सरलता, बुद्धिमत्ता की दृष्टि से विदेशों की भाषाओँ में महत्वपूर्ण है |
भारतीय पत्रकारों ने विदेशों में हिंदी की धाक जमा रखी है, धीरे-धीरे हिंदी विश्व- मंच पर विश्व की तीसरी भाषा का स्थान ग्रहण करती जा रही है | भारत की स्वतंत्रता से पूर्व ही विदेशों में हिंदी पत्रकारिता के बीज फूट चुके थे, उदहारण के लिये मारीशस और फिजी आदि के नाम लिए जा सकते हैं इससे हमारी राष्ट्र भाषा को भी बल प्राप्त होगा जिससे विश्व पटल पर हिंदी पत्रकारिता भी सम्मानित होगी|
स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देने के लिए जब भी हिंदी समाचार-पत्रों में उत्तेजक लेख और विचार प्रकाशित होते तब ब्रिटिश सरकार का दमन चक्र चलने लगता | इसी दमनचक्र और विभिन्न सरकारी कानूनों की आड़ में समाचारों को प्रतिबन्धित किया जाता था, जिसके परिणामस्वरुप इन पत्रों का प्रकाशन बन्द हो जाता | इन पत्रों से जुड़े पत्रकार प्रतिबंधित काल में भूमिगत होकर, हस्तलिखित या साइक्लोस्टाइल पत्र प्रकाशित किया करते थे| कशी नगरी में इस प्रकार के पत्रों का प्रकाशन 1930, 1942 और आजादी के बाद आपातकाल में 1975-79 में हुआ| इन पत्रों के माध्यम से सरकारी दमन का खुलकर विरोध किया जाता था इन भूमिगत प्रेस की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इनके प्रकाशन स्थल का पता सरकार को कभी नहीं लग पाया| भूमिगत प्रेस से सम्बन्ध रखने वाले मुख्य रूप से आचार्य नरेन्द्रदेव, बाबू राव, विष्णु पराड़कर आदि लोग थे जो देश में स्वतंत्रता आन्दोलन की ज्वाला प्रज्वलित करने में सक्रिय रहे|
परतंत्र भारत में पत्र प्रकाशन बड़ा ही असम्भव कार्य था जो अपना तन मन धन सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर रहता था वही पत्रकारिता में प्रविष्ट हो सकता था | उन पत्रकारों के आदर्श तो महान थे किन्तु साधन सीमित थे, उन्हें न तो किसी प्रकार का सरकारी संरक्षण प्राप्त था और न ही किसी प्रकार का प्रोत्साहन, न ही समाज का सक्रिय सहयोग मिलता था | एक ही व्यक्ति, लेखक, रिपोर्टर, प्रूफरीडर, पैकर, प्रिन्टर आदि सभी भूमिकाओं का निर्वहन करता था उस समय लोग पत्र-पत्रिकाओं के मूल्य चुकाना भी नहीं चाहते थे चंदे के रूप में दी जाने वाली धनराशि की प्राप्ति न होने पर पत्रकारों द्वारा जब पैसों की मांग की जाती तो बड़ी बेशर्मी से उनसे कह दिया जाता की पत्र भेजना बन्द कर दें| उस समय इन पत्रों के पाठक भी कम थे परन्तु धीरे धीरे लोगों की मनोवृत्ति में सुधार हुआ, साक्षरता बढ़ी, लोग जागरूक हुए, शिक्षित पाठक वर्ग का ध्यान हिंदी पत्र पत्रिकाओं की ओर आकर्षित हुआ, इस तरह देश में ज्यों ज्यों राष्ट्रीयता का विकास हुआ और भारतीय जनमानस पर उसका प्रभाव जमता चला गया, जो कि आज सूचना के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाये हुए है और आशा है कि भारतीय पत्रकारिता की स्वतंत्रता और सच्चाई बरक़रार बनी रहेगी|
अजीत कुमार, (इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय एन एस एस पुरस्कार से राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित)                          
एम०जे० छात्र (लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, लखनऊ)           
  Mob- 09454054207, Email- ajitkushwaha1992@gmail.com

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